त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिण: |
यज्ञदानतप:कर्म न त्याज्यमिति चापरे || 3||
त्यागम्-त्याग देना चाहिए; दोष-वत्-बुराई के समान; इति–इस प्रकार; एके-कुछ; कर्म-कर्म; प्राहुः-कहते हैं; मनीषिणः-महान विद्वान; यज्ञ-यज्ञ; दान-दान; तपः-तप; कर्म-कर्म; न कभी नहीं; त्याज्यम्-त्यागना चाहिए; इति–इस प्रकार; च-और; अपरे–अन्य।।
BG 18.3: कुछ मनीषी यह कहते हैं कि समस्त प्रकार के कर्मों को दोषपूर्ण मानते हुए उन्हें त्याग देना चाहिए। किन्तु अन्य विद्वान यह आग्रह करते हैं कि यज्ञ, दान, तथा तपस्या जैसे कर्मों का कभी त्याग नहीं करना चाहिए।
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सांख्य दर्शन के अनुयायी लौकिक जीवन को यथाशीघ्र और यथासंभव त्याग देने के पक्ष में हैं। उनका मत है कि समस्त कार्यों का परित्याग कर देना चाहिए क्योंकि ये सब इच्छाओं से प्रेरित होते हैं, जो आगे हमें जन्म और मृत्यु के चक्र में फंसाते हैं। वे यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि समस्त कार्य स्वाभाविक रूप से कुछ दोष युक्त होते हैं जैसे कि अप्रत्यक्ष हिंसा। उदाहरण के लिए यदि कोई अग्नि जलाता है तब सदैव यह संभावना बनी रहती है कि कीट इसमें जल सकते हैं। अतः ऐसे लोग केवल शरीर की देखभाल को छोड़कर सभी कर्मों से विरत रहने को उचित मानते हैं। वे यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि वेदों में भी दो परस्पर विरोधी निर्देश देखने को मिलते हैं।
यदि उनमें से कोई विशेष विधि हो तब सामान्य निर्देश को त्याग देना चाहिए। उदाहरण के लिए, वेद हमें यह निर्देश देते हैं-"मा हिस्स्यात् सर्वा भूतानि" अर्थात किसी भी जीवित प्राणी की हत्या न करो। यह एक सामान्य निर्देश है। वही वेद यह भी निर्देश देते हैं कि अग्नि यज्ञ सम्पन्न करो। यह एक विशेष निर्देश हैं। जिसमें संभावना बनी रहती है कि अग्नियज्ञ संपन्न करते समय कुछ कीट-आदि भूल से उसमें मर सकते हैं। परन्तु मीमांसक (मीमांसा दर्शन के अनुयायी) मानते हैं कि यज्ञ सम्पन्न करने के विशेष निर्देश यथावत् रहने चाहिए और इसका पालन अवश्य होना चाहिए भले ही इससे हिंसा न करने के समान्य निर्देश का विरोध होता हो। इसलिए मीमांसक कहते हैं कि हमें यज्ञ, दान तथा तपस्या का कभी त्याग नहीं करना चाहिए।